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त्वं हि स्तो॑म॒वर्ध॑न॒ इन्द्रास्यु॑क्थ॒वर्ध॑नः । स्तो॒तॄ॒णामु॒त भ॑द्र॒कृत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ hi stomavardhana indrāsy ukthavardhanaḥ | stotṝṇām uta bhadrakṛt ||

पद पाठ

त्वम् । हि । स्तो॒म॒ऽवर्ध॑नः । इन्द्र॑ । असि॑ । उ॒क्थ॒ऽवर्ध॑नः । स्तो॒तॄ॒णाम् । उ॒त । भ॒द्र॒ऽकृत् ॥ ८.१४.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:11 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

महिमा की स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (हि) जिस कारण (त्वम्) तू ही (स्तोमवर्धनः) स्तुतियों का वर्धक हो। तथा (उक्थवर्धनः+असि) तू ही उक्तियों का वर्धक हो। (उत) और (स्तोतॄणाम्) स्तुतिपाठकों का (भद्रकृत्) तू कल्याणकर्त्ता हो ॥११॥
भावार्थभाषाः - उसी की कृपा से भक्तों की स्तुतिशक्ति, भाषण चातुर्य्य और कल्याण होता है, यह जानकर वही स्तुत्य और पूज्य है, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥११॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे योद्धा ! (त्वं, हि) आप ही (स्तोमवर्धनः) कीर्ति के बढ़ानेवाले (असि) हैं (उक्थवर्धनः) शास्त्रीय वाक् के बढ़ानेवाले आप ही हैं (उत) और (स्तोतॄणाम्) आपकी आज्ञानुसार चलनेवाले सदाचारियों के (भद्रकृत्) कल्याणकर्ता आप हैं ॥११॥
भावार्थभाषाः - राजा अपने प्रजाहितकारक सद्गुणों से प्रजा को ऐसा अनुरक्त करे कि वह अन्य राजाओं की अपेक्षा अपने राजा को ही सर्वोत्तम समझे और राजा वैदिक मार्गों का निर्विघ्न प्रसार करे, जिससे प्रजा उसकी अनुयायिनी बनकर उचित सुख का अनुभव कर सके अर्थात् अपने कर्मकाण्ड तथा धर्म में उन्नत होती हुई प्रजा के मार्गों में कोई रुकावट तथा बाधा राजा न करे, जिससे अपने धर्म में दृढ़ हुई प्रजा राष्ट्र का शुभचिन्तन करती हुई सुखी रहे ॥११॥
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शिव शंकर शर्मा

महिम्नः स्तुतिं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! हि=यतः। त्वमेव। स्तोमवर्धनः=स्तोमान् स्तुतीर्वर्धयितुं शीलमस्यास्तीति स्तोमवर्धनः। पुनः। उक्थवर्धनोऽसि= उक्थानाम्=उक्तीनां वर्धकोऽसि। तवैव कृपया स्तावकानां स्तोमोक्थे प्रकाशेते। उत=अपि च। हे इन्द्र त्वमेव। स्तोतॄणाम्=स्तुतिपाठकानाम्। भद्रकृदसि=मङ्गलविधायकोऽसि। अतस्त्वमेव। सेव्योऽसीत्यर्थः ॥११॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (त्वं, हि) त्वमेव (स्तोमवर्धनः) स्तुतिप्रसारकः (असि) भवसि (उक्थवर्धनः) शास्त्रीयवाचां वर्धकः त्वमेव (उत) अथ (स्तोतॄणाम्) सत्पथिनाम् (भद्रकृत्) कल्याणं त्वमेव करोषि ॥११॥